भारतीय वैदिक शिक्षा – एक नजर

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वैदिक शिक्षा

शिक्षा मनुष्य  जीवन का एक मुख्य अंग बन गया है। शिक्षा ही मनुष्य को सभ्य, संस्कारी, तथा समाज में किस प्रकार से रहना है, इन सबका ज्ञान कराता है। शिक्षा के द्वारा ही हम अपनी सभ्यता, संस्कार, इतिहास आदि के सही तरीके से इनके बारे जान पाते हैं। यंहा वैदिक शिक्षा प्रणाली  वेदों पर आधारित शिक्षा है। 

समय के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में कई बदलाव आये। जहां आज शिक्षा बाल केंद्रित एवं पुस्तकों पर आधारित है वहीं वैदिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षा न तो बाल केंद्रित थी न ही पुस्तकों पर आधारित। वैदिक काल में शिक्षा के मुख्य साधन श्रवण मनन तथा निदिध्यासन आदि थे। कई वेद जिन्हें कंठस्थ ही कराया गया तथा उनका किसी भी प्रकार का कोई भी लिखित स्वरुप संकलित नहीं किया गया, वे श्रुति कहलाये।

आज हम वैदिक शिक्षा  प्रणाली के बारे में बात करते हैं । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं एवं संस्कृतियों में से एक माना जाता है। वैदिक शिक्षा प्रणाली भारतीय शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न  अंग है जो कि वेदों पर आधारित है तथा इन्हें अर्थात भारतीय वेदों को विश्व भर में सबसे पुराने शास्त्रों के रूप में माना जाता है। वेद चार प्रकार के होते हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद । 

हमारे इतिहासकारों के अनुसार 2500 ईशा पूर्व से 500 ईशा पूर्व तक भारीतय शिक्षा प्रणाली पूर्ण रूप से वेदों पर आधारित थी अतः 2500 ईशा पूर्व से 500 ईशा पूर्व के समय को वैदिक काल के नाम से जाना जाता है। वैदिक काल में शिक्षा ऋषि मुनियों द्वारा प्रदान की जाती थी अर्थात ब्राह्मणों द्वारा प्रदान की जाती थी जिस कारण कुछ विद्वानों द्वारा वैदिक शिक्षा प्रणाली को ब्राह्मण शिक्षा प्रणाली भी कहा जाता है। 

वैदिक काल एवं उत्तर वैदिक काल की शिक्षा प्रणाली में काफी अंतर देखने को मिला  है। जैसे की वैदिक काल पूर्ण रूप से ऋग्वेद पर आधारित था उसी प्रकार  उत्तर वैदिक काल में सारे वेदों की शिक्षा प्रदान की गयी। वैदिक काल में सभी को समान समझा जाता था तथा सभी को शिक्षा प्रदान की जाती थी। उत्तर-वैदिक काल की शिक्षा में शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था तथा महिलाओं की शिक्षा भी उत्तर-वैदिक काल में समाप्त कर दी गयी। 

वैदिक काल में शिक्षा को दो भागो  में बांटा गया था। जो  इस प्रकार हैं- 

आरंभिक शिक्षा 

आरंभिक शिक्षा की व्यवस्था बच्चों के लिए उनके परिवार के मध्य उनके घर पर ही संपन्न करवाई  जाती थी। उम्र में जब बच्चा 5 वर्ष का हो जाता था तब ये शिक्षा आरम्भ  की जाती थी।आरंभिक शिक्षा का आरम्भ विदयारम्भ संस्कार से हुवा करता  था। बच्चे का विदयारम्भ संस्कार परिवार के  कुलपुरोहित के द्वारा बच्चे के घर पर ही संपन्न कराया जाता था जिसके साथ उसकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही  शुरू हो जाती थी।

 विदयारम्भ संस्कार में सबसे पहले  बच्चे को नहलाया जाता था फिर उसे नवीन वस्त्र पहनाये जाते थे। परिवार के कुलपुरोहित और बच्चे के मध्य  में चावल बिखेरे जाते थे फिर बच्चे से उन चावलों में अक्षर बनवा के इस संस्कार की शुरुआत की जाती थी। 

उच्च  शिक्षा 

उच्च शिक्षा की शुरुआत उपनयन संस्कार से की जाती थी, जिसके बाद बालक का उच्च शिक्षा में प्रवेश होता था। बालक की उच्च शिक्षा गुरुकुल में होती थी तथा उच्च शिक्षा संपन्न होने तक बालक  को गुरुकुल में ही रहना होता  था। गुरुकुल ऐसे स्थान होते थे जो घरों से बहुत दूर जंगलों के मध्य  शांत वातारवरण में होते थे। गुरुकुल किसी एक गुरु के अंतर्गत चलता था। गुरुकुल में एक या एक से अधिक गुरु होते थे जिनमें से कोई एक गुरु सर्वोपरि होता था जिसके अंतर्गत सारे गुरु कार्य करते थे। 

समावर्तन संस्कार 

जब बालक शिक्षित हो कर  गुरुकुल से अपने घर पर पहुँचता था तब सर्वप्रथम बालक का समावर्तन संस्कार होता था। समावर्तन का तात्पर्य है वापस लौटना।  ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा संपन्न करने के पश्चात बालक गुरु की आज्ञा प्राप्त करके अपने घर लौटता था। घर लौटने से पहले शिष्य अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देता था। जब बालक शिक्षा पूर्ण करके घर पहुँचता था तब समावर्तन संस्कार संपन्न किया जाता था तथा इस संस्कार के पश्चात ही बालक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर पाता था। 

वैदिक काल में शिक्षा की व्यवस्था या शिक्षा पर राज्य का किसी भी प्रकार का नियन्तरण नहीं हुवा करता  था। शिक्षा पर पूर्ण रूप से गुरुकुल के गुरु का नियन्तरण होता था। किसी भी गुरुकुल के मुख्य गुरु ही उनके शिक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव ला सकते थे।  

वैदिक काल में शिक्षापूर्ण रूप से  निःशुल्क थी। शुल्क के स्थान में शिष्य गुरुकुल के सारे कार्य स्वयं  करते थे तथा शिक्षा संपन्न होने के पश्चात अपनी आर्थिक अवस्था के अनुसार गुरु को गुरुदक्षिणा देते थे। गुरुदक्षिणा में शिष्य अपने गुरु को अनाज, कपडा, बर्तन आदि अपने परिवार की  आर्थिक अवस्था के अनुसार देता था। 

वैदिक काल में गुरुकुल को राजाओं की तरफ से कभी-कभी वित्त की प्राप्ति होती थी किन्तु इस प्रकार के वित्त की प्राप्ति स्थायी नहीं थी। गुरुकुल को राजा की तरफ से दान स्वरुप जमीन या वहां की प्रजा की तरफ से अन्य प्रकार के दान जैसे, जानवर, कपडे, अनाज, बर्तन, धन आदि प्राप्त होते थे। दूसरा गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आये हुए शिष्य आस-पास के गांवों से भिक्षा मांग कर लाते थे। तीसरा जब गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आये हुए शिष्यों की शिक्षा संपन्न हो जाती थी तो वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा के रूप में अनाज, कपडे और अन्य वस्तुवें देते थे। इस प्रकार से गुरुकुल की वित्त वयवस्था हुवा करति थी ।