परिस्थितियों को समझने-बूझने, उनका विश्लेषण करने और उनसे निजात पाने की कला का नाम ही है शिक्षा। Higher Education वह संजीवनी है, जो अज्ञानतारूपी मरुस्थल में भी ज्ञान की गंगा लहराती है। भारतीय मनीषियों सच ही ने कहा है- सा विद्या या शास्ति। अर्थात्, जो हमें अनुशासित करती है, वह विद्या ही है। पुनः वे कहते हैं—सा विद्या या विमुक्तये। यानी, वही विद्या है, जो हमें मुक्ति भी देती है। मुक्ति संकीर्णता से, वायवीय भौतिकता की परिधि से। गुरुग्रंथसाहिब में भी वर्णित है-विद्या विचारी तां परोपकारी।
बदलती शिक्षा व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में हमारी नैतिकतापूर्ण, गुणवत्तापूर्ण व व्यक्तित्व-निर्माण पर केंद्रित Higher Education -पद्धति कहाँ तक अपनी अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ है, यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है। निस्संदेह हम मैकाले की शिक्षा-पद्धति को पानी पी-पी कर कोसने से बाज नहीं आते, पर आज तक मैकाले की भूतात्मा हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है, जिसके लिए मैकाले कहीं से भी ज़िम्मेदार नज़र नहीं आते। भूमंडलीकरण के इस दौर में हम स्वयं अपनी ही पहचान खोते जा रहे हैं। पूरे विश्व में जो शैक्षणिक व्यवस्था है, उसके तीन घटक हैं-छात्र, अध्यापक और अभिभावक। इन तीनों के समन्वय के बगैर शैक्षणिक त्रिभुज के निर्माण की परिकल्पना पूर्णतः ही बेमानी है।
भारत में विद्यालयी पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक छात्र ही कॉलेज पहुँच पाता है। उच्च शिक्षा हेतु पंजीकरण कराने वालों का अनुपात हमारे यहाँ दुनिया में सबसे कम 11 % है, जबकि अमेरिका में यह 83 % है। इस अनुपात को 15 % तक ले जाने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत को 2, 26, 410 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा।
वर्तमान में हमारे यहाँ चारों तरफ अनास्था का माहौल ही पनप रहा है। गुरु-शिष्य सम्बंध का घनत्व लगातार घट रहा है। उच्च शिक्षा की स्थिति को और अधिक बेहतर बनाने के लिए विश्ववविद्यालय अनुदान आयोग का गठन हुआ तो ज़रूर, पर आज कुलपति का दायित्व संभाल रहा व्यक्ति भी अपने पद की गरिमा के साथ न्याय नहीं करता दिखाई देता है। कुछ लोग जेल जा चुके हैं और कुछ जाने की राह पर हैं। अगर स्थिति यही रही, तो विश्वविद्यालय जैसी स्वायत्त संस्था की विश्वसनीयता भी संदेहास्पद होती चली जायेगी। आज शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का जितना प्रतिशत खर्च होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। बकौल भारत सरकार के उच्च शिक्षा सचिव, ” शोध पर 0.8 % खर्च हो रहा है, जबकि कम-से-कम 2 % खर्च होना चाहिए. रक्षा और अन्य मंत्रालयों का बजट लम्बा-चौड़ा होता है, पर शिक्षा की अनदेखी होती है। समय पर प्राध्यापकों को वेतन नहीं मिलता, फलतः हड़ताली संस्कृति विकसित होती चली जा रही है, जिसका खामियाजा अन्ततः छात्रों को भुगतना पड़ता है। शिक्षा मंत्रालय की ज़गह भारत सरकार ने इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय कहना शुरु कर दिया है। ब्रिटेन में भी इसे ‘शिक्षा और कौशल मंत्रालय’ तथा ऑस्ट्रेलिया में ‘शिक्षा, रोज़गार व कार्यस्थल सम्बंध मंत्रालय’ कहा जाता है।
जब पूरी दुनिया ने विद्यालय की कल्पना नहीं की थी, उस वक़्त हमारे भारत में विश्वविद्यालय हुआ करते थे। विश्वस्तरीय नालंदा विश्वविद्यालय, तक्षशिला वि।वि और विक्रमशिला वि।वि। की पावन धरती पर शिक्षा-व्यवस्था की विसंगतियाँ कहीं-न-कहीं बहुत ज़्यादा कचोटती हैं। Higher Education में जब सियासत की गैरज़रूरी घटिया दखलंदाजी बढ़ती है, तो बेवजह शिक्षा-जगत को शर्मसार होना पड़ता है।
उच्च शिक्षा पर बहस तब और भी बेमतलब लगने लगती है, जब यह तथ्य ज़ेहन में उभरता है कि कुछ साल पहले बिहार के विश्वविद्यालयों में एक ही जाति के छह कुलपति नियुक्त थे और इसके पीछे की कहानी सबको मालूम है। हर सियासतदां अपने इलाके के वि।वि। में अपनी ही जाति का कुलपति नियुक्त करवाने के लिए पैरवी करता है। राज्यपाल जैसे वैधानिक व ज़िम्मेदार पद पर बैठे आदमी की इतनी किरकिरी पहले कभी नहीं हुई थी, जिनसे विधान पार्षद कुलपति पद की क़ीमत पूछकर उनके कुकृत्यों की विधानमंडल के संयुक्त सत्र में बखिया उधेड़ी हो।
इस बीच यह चर्चा जोरों पर थी कि विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में आने और पैर पसारने की अनुमति देने से भारत की शिक्षा-व्यवस्था के स्तर में कुछ सुधार हो। यदि ज्ञान-विज्ञान के प्रसार व विनिमय हेतु कोई विदेशी विश्वविद्यालय भारत आना चाहे, तो अलग बात है, आखिर उसका नाम ही विश्वविद्यालय है। लेकिन यदि इसका मकसद महज मुनाफा कमाना है, तो फिर यह न सिर्फ़ अशुभ संकेत है, बल्कि घोर आपत्तिजनक भी है। आखिर क्यों ये चिंतित भलेमानुष जेएनयू को कैम्ब्रिज बनाना चाहते हैं, सेंट स्टीफन्स कॉलेज को ट्रीनिटी कॉलेज में तब्दील करना चाहते हैं? स्टीफेंस को स्टीफेंस बने रहना होगा, जेएनयू को जेएनयू. इसी में इसके अस्तित्व की सार्थकता भी है। आखिर इन संस्थानों की रूपरेखा इस देश के छात्रों की सांस्कृतिक-सामाजिक-ऐतिहासिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तथा उनके कौशल-मानस को मद्देनज़र रखते हुए तय की गयी है। यदि शिक्षकों की चयन-प्रक्रिया का मानक विश्वस्तरीय कर दिया जाये, तो परिसर व अध्यापन का पैमाना खुद-ब-खुद निखर जायेगा, अव्वल और उत्कृष्ट हो जायेगा।
बरसो पहले किसी प्रबंधन गुरु पीटर ड्रकर ने ऐलान किया था, “आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जायेगा। दुनिया में ग़रीब देश समाप्त हो जायेंगे, लेकिन किसी भी देश की समृद्धि इस बात से आँका जायेगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलकेणी के अनुसार,” भारत तो अपने डेमोग्राफिक लाभांश का फायदा उठाना चाहिए. इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है। इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है। यदि इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाये तो ये अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं। तथा भारत एक बार फिर से इस ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष पर सोने की चिड़ियाँ बन कर चहक सकता है।