सरकारी स्कूल बनाम निजी स्कूल

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Private School में शिक्षकों के पास केवल और केवल पढ़ाने से जुड़ा हुआ काम ही होता है। वहाँ बहुत से ऐसे काम नहीं होते जिसकी जिम्मेदारी सरकारी स्कूल के शिक्षकों को उठानी पड़ती है। अगर Government school में पढ़ाई का स्तर ऊपर उठाना है तो उसके लिए सबसे पहले उसे ख़ुद शिक्षा के प्रति अपना नज़रिया बदलना चाहिए | इसके बाद शिक्षकों का बदलते दौर के साथ शिक्षा के प्रति अपना नज़रिया दुरुस्त करने की सलाह देनी चाहिए | शिक्षा से सम्बंधित बड़े फ़ैसलों में शिक्षकों के विचारों को भी जगह देनी चाहिए, यहाँ शिक्षकों का मतलब शिक्षकों की राजनीति से जुड़ी इकाइयां बिल्कुल भी नहीं है।

शिक्षा की स्थिति खराब होने का एक कारण शिक्षा में बहुत गहरे तक घुसी हुई दलगत राजनीति भी है। हर फ़ैसले में राजनीति होती है। जहां राजनीति नहीं होती, वहाँ बाकी नीतियां होती हैं। उदाहरण के तौर पर एक उच्च प्राथमिक स्कूल के प्रधानाध्यापक का प्रमोशन सीनियर सेकेंडरी (6ठीं से 12वीं) स्कूल में संस्कृत विषय पढ़ाने के लिए कर दिया गया। उन्होंने कई सालों से संस्कृत नहीं पढ़ाई है, उनके पढ़ाने का स्तर क्या होगा? क्या वे 10वीं-12वीं के बच्चों को अच्छे से पढ़ा पाएंगे, इस संदर्भ में उनकी स्वयं की कोई राय जानने की कोई ज़रूरत नहीं समझी गई | बस एक आदेश आया और स्कूल का नया पता मिल गया कि वहाँ फलां तारीख से ज्वाइन करना है और बच्चों को फलां विषय पढ़ाना है।

एक और सीनियर सेकेंडरी स्कूल से चार-पाँच शिक्षकों का तबादला अन्य स्कूलों में हो गया। बच्चे और गाँव के लोग स्कूल की तालाबंदी पर उतर आए कि जब शिक्षक ही नहीं हैं तो स्कूल चलाने का क्या मतलब है? तत्काल प्रभाव से प्राथमिक स्कूलों के शिक्षक लगाये गये। अभी वहाँ पर शिक्षकों को भेजने का काम हो रहा है।

उन्होंने कई सालों से संस्कृत नहीं पढ़ाई है, उनके पढ़ाने का स्तर क्या होगा? क्या वे 10वीं-12वीं के बच्चों को अच्छे से पढ़ा पाएंगे, इस संदर्भ में उनकी स्वयं की कोई राय जानने की कोई ज़रूरत नहीं समझी गई | बस एक आदेश आया और स्कूल का नया पता मिल गया कि वहाँ फलां तारीख से ज्वाइन करना है और बच्चों को फलां विषय पढ़ाना है। ज़मीनी स्तर पर होने वाली ऐसे तबादलों से पता लगता है कि हमें सिस्टम की मशीनरी में बदलाव (केवल यांत्रिक हेर-फेर) की ही चिंता है। लेकिन ऐसे बदलाव से बच्चों के ऊपर क्या असर पड़ेगा? उनकी पढ़ाई कैसे प्रभावित होगी? ऐसे बहुत से सवालों पर शायद बड़े स्तर पर कभी भी ग़ौर नहीं किया जाता।

इसके विपरीत प्राइवेट संस्थानों ने इसी को अपना सूत्रवाक्य बना लिया। उनका कहना है कि उन पर समाज का भारी दबाव रहता है। उनसे बेहतर गुणवत्ता की अपेक्षा की जाती है इसलिए उन्हें अपने संसाधनों पर काफी खर्च करना पड़ता है। इसके लिए उन्हें फीस बढ़ानी पड़ती है। जबकि अभिभावकों का आरोप है कि वे सिर्फ़ मुनाफे के लिए अनाप-शनाप फीस वसूलते हैं। ज़रूरत इस तकरार को रोकने और किसी सर्वमान्य समाधान तक पहुंचने की है। पिछले साल मई में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों को लेकर गठित संविधान पीठ ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है कि शिक्षा कोई कारोबार नहीं, अंतत: एक मिशन और सामाजिक जवाबदेही है। इसलिए राज्य को बिना सरकारी सहायता के चलने वाले निजी शिक्षण संस्थानों में भी दाखिले की प्रक्रिया की देखरेख करने और फीस के निर्धारण का अधिकार है। सबसे बेहतर तो यह होगा कि सरकार अपने स्कूलों का स्तर इतना ऊंचा उठा दे कि लोग अपने आप उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने लगें।