सरकारी शिक्षा तंत्र की कमियां तथा दोष

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Government Education System

भारत में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून लागू है, जिसे बहुत साल हो गए हैं। आरटीई तक पहुचने में हमें पूरे सौ साल का समय लगा है, 1910 में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा सभी बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा के अधिकार की मांग की गई थी, इसके बाद 1932 वर्धा में हुए शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में महात्मा गांधी ने इस मांग को दोहराया था, लेकिन बात बनी नहीं।

दरअसल, आजादी के बाद सरकारी शिक्षा तंत्र (Government Education System) को संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में ही स्थान मिल सका जो कि अनिवार्य नहीं था और यह सरकारों की मंशा पर ही निर्भर था। 2002 में भारत की संसद में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा इसे मूल अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया। इस तरह से शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा मिल सका।

आप जानते ही होंगे की 1 अप्रैल 2010 को सरकारी शिक्षा तंत्र (Government Education System) में “शिक्षा का अधिकार कानून 2009” पूरे देश में लागू हुआ था, अब यह एक अधिकार है जिसके तहत राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि उनके राज्य में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध हों और इसके लिए उनसे किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शुल्क नहीं लिया जा सकेगा।

इस कानून को लागू करने से पहले भी भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर काफी समस्याएं थीं और कानून आने के बाद इसमें कुछ नई दिक्कतें भी जुड़ी हैं, जैसे पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, शिक्षकों से दूसरे काम कराया जाना, सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन व्यवस्था को लेकर जटिलताएं, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रुकावट और बच्चों के बीच में पढ़ाई छोड़ने देने की दर अभी की बड़ी चुनौतियां है, लेकिन इसके सकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं, आरटीई लागू होने के बाद आज हम लगभग सौ फीसदी नामांकन तक पहुंच गए हैं जो की एक बड़ी उपलब्धि है और अब शहर से लेकर दूर-दराज के गावों में लगभग हर बसाहट या उसके आसपास स्कूल खुल गए हैं। उपलब्धियां होने के बावजूद हमारी सरकारी शिक्षा तंत्र (Government Education System) व्यवस्था लगातार आलोचनाओं से घेरे में रही है। इस दौरान भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर जितनी भी रिपोर्टें आई हैं वे अमूमन नकारात्मक रही हैं।

हम सबसे पहले आलोचनाओं और दुष्प्रचार की बात करते हैं, इसके चलते सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगातार कम हुआ है और छोटे शहरों,कस्बों और गावों तक में बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुले हैं, इनमें से ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों की स्थिति सरकारी स्कूलों से भी खराब हैं और उनका मुख्य फोकस शिक्षा नहीं ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कूटना है

निश्चित रूप से कानून की भी सीमाएं होती हैं, जिसका दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहा है, यह कानून केवल 6 से 14 साल की उम्र के ही बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है और इसमें 6 वर्ष के कम आयु वर्ग के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है, यानी कानूनन बच्चों के प्री-एजुकेशन नजरअंदाज किया गया है। 15 से 18 आयु समूह के बच्चे भी कानून के दायरे से बाहर रखे गये हैं।

इसी तरह का एक अपवाद यह भी है कि निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर कमजोर आय वर्ग के बच्चों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता है, जो परिवार थोड़े-बहुत सक्षम हैं, वे अपने बच्चों को पहले से ही प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं, लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं व भी इस ओर प्रेरित किया जा रहे हैं।

देश के अलग-अलग राज्यों में कई छोटे-छोटे प्रयोग हो रहे हैं। इसी प्रकार का एक प्रयोग दिल्ली में हो रहा है, जिसे कुछ युवा अंजाम दे रहे हैं उन्होंने इस पहल को नाम दिया है “साझा” , यह लोग दिल्ली के स्कूलों में बेहतरी के लिए काम कर रहे है, इनकी कोशिश है कि कैसे शिक्षकों, पालकों और शाला प्रबंधन कमेटी को एक दूसरे से जोड़ते हुए काम किया जाए. “साझा” मानवीय भावनाओं पर जोर देते हुए ये कोशिश करती है कि कैसे स्कूल और समाज और एसएमसी को जोड़ कर बदलाव लाया जाए |

हमें इन प्रयोगों से सीखने और उन्हें और अधिक व्यापक बनाने की ज़रूरत है, जिससे यह दूसरों के लिए एक बेहतरीन उदाहरण और मॉडल बन सके. हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल राज्य या सर्कार का ही विषय नहीं है और केवल ठीकरा फोड़ने से मामला और बिगड़ सकता है। स्कूलों को सरकार और समाज मिल कर ही सुधार सकते हैं। सरकारों को भी कोशिश करनी होगी कि स्थानीय स्तर पर सभी समुदाय के लोग और पालक भी आगे आकर जिम्मेदारियों को उठा सकें।