महँगी होती चिकित्सा शिक्षा के कारण लुप्त होती सेवा भावना

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मेडिकल कॉलेजों की एक बहुत बड़ी संख्या छह राज्यों में ही केंद्रित होकर रह गयी है (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और गुजरात) । इन राज्यों में 63% मेडिकल कॉलेज और कुल सीटों में से 67% सीटें हैं।

अब समय है की भारतीय मेडिकल कॉलेजों में भी कुछ आधुनिक बदलाव की आवश्यकता है। इसका सीधा मतलब है कि भारत में भी अब संख्या में लगातार बढ़ते जा रहे प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों पर रोक लगनी ही चाहिए या उन्हें बंद करके सिर्फ़ सीमित संख्या वाले अत्याधुनिक क्वालिटी परक कॉलेजों को ही मान्यता मिलनी चाहिए. कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते इन मेडिकल कॉलेजो और उसी प्रकार उनकी बढ़ती फीस ने

चिकित्सा को सेवा से हटा कर वयवसायिकता के धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया हैं l जंहा पर कभी-कभी मानवता भी चीत्कार उठती है l

सच्चाई यह है कि अब भी समृद्ध घरों के बच्चे ही प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेते हैं। ग्रामीण इलाकों के बहुत कम ही बच्चे इनमें प्रवेश ले पाते हैं।। ग्रामीण इलाकों में तो लोग इतना इलाज में खर्च नहीं कर पाएंगे और वहां रहने पर चिकित्सक की जीवन शैली भी उतनी समृद्ध नहीं हो पायेगी। फलतः ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कारने वाले चिकित्सकों के मन में भी धीरे-धीरे अवसाद वाली भावना आने लगती है। हर कोई आज की तड़क भड़क वाली तथा भौतिक चकाचौंध वाली लाइफ स्टाइल  में रहना चाहता है । जो की   ग्रामीण इलाकों में संभव नहीं है ।

चिकित्सक की फीस इतनी महँगी इसलिए होती है कि उसे चिकित्सक बनने के   पूर्व अपनी   शिक्षा पर  लाखों रुपए खर्च करने पड़ने पड़ते हैं। उसे अपना करियर सँवारने के लिए अनेक कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। इतना खर्च करने के बाद कौन सेवा  और त्याग की भावना रख पायेगा  l

इस समय हमारे देश में दो मुख्य अलग-अलग काउंसल हैं। एक MCI जो ऐलोपथिक चिकित्सा प्रणाली को दिशा-निर्देश देता है तथा दूसरा CCIM जो भारतीय चिकित्सा प्रणाली के दिशा-निर्देश निर्धारित करता है l

इससे ये हुआ यह कि दो अलग चिकित्सा प्रणाली बन गयी हैं जो अपने अलग तरीके से कार्य करना चाहती हैं। इनमे दोनों में आपस में सामंजस्य भी नहीं है।

शिक्षकों के लिए सतत् प्रशिक्षण तथा गुणवत्ता विकास के लिए कानून बनाया जाए ।

देश के विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, संस्थानों तथा स्कूलों के स्तर को निर्धारित करने के स्वतन्त्र एजेंसियों द्वारा समय-समय पर उनकी रेटिंग कराई जाए तथा उनका स्तर तय किया जाए. शिक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी जाए. प्रारम्भ में इसे विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा तक सीमित किया जाए  ।

भारत में न सिर्फ़ गाँवों और शहरों के बीच बल्कि अलग-अलग राज्यों के बीच भी स्वास्थ्यकर्मियों और स्वास्थ्य सेवाओं के वितरण में बहुत अंतर है। चिकित्सा शिक्षा देने वाले सभी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज शहरी इलाकों में हैं, जहाँ सिर्फ़ 30-35 प्रतिशत आबादी रहती है। स्वास्थ्य परिणाम बताते हैं कि पिछले 60 वर्ष के दौरान चिकित्सा शिक्षा कार्यक्रम इन दोनों स्थितियों को बदलने में नाकामयाब रहे हैं। अत: हमें अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था में जबर्दस्त बदलाव की करना होगा ताकि मौजूदा मेडिकल कॉलेजों का स्तर सुधारने के लिए आवश्यक परिवर्तन किए जा सकें और मेडिकल कॉलेजों को चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान और टैक्नॉलॉजी में हुई जबर्दस्त प्रगति के अनुरूप ढाला जा सके. साथ ही गाँवों में चिकित्सा शिक्षा की कमी की समस्या पर भी ध्यान देना होगा। इसके लिए मौजूदा कॉलेजों में ऐसे अभिनव प्रयास अपनाने होंगे, जिनसे हमारी ज़रूरतों के अनुसार ग्रामीण चिकित्सा शिक्षा कार्यक्रम चलाए जा सकें और ग्रामीण चिकित्सकों को देश के मौजूदा मेडिकल कॉलेजों के भीतर ही प्रशिक्षण दिया जा सके ।