सामान्यतया शिक्षा का अर्थ सिर्फ लिखने, पढऩे तक ही मान लिया जाता है। लेकिन लिखना, पढऩा तो केवल शिक्षा की परिभाषा का एक अंश मात्र है। शिक्षा एक बहुआयामी साधन है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारती है। व्यक्तित्व निर्माण के कारण ही मनुष्य, समाज का निर्माण और दिशा प्रदान करने का कार्य करता है। समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिए अच्छी शिक्षा बहुत ही आवश्यक है।
सभी प्रकार के विकास एवं उन्नति के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण साधन है। शिक्षा के अभाव में कुछ भी अर्थ हांसिल नहीं किया जा सकता। यह आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार तथा उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने हेतु क्षमताओं का निर्माण कर तथा बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साक्षरता के स्तर में वृद्धि से उच्च उत्पादकता बढ़ती है तथा अवसरों के सृजन से स्वास्थ्य में सुधार, सामाजिक विकास और उचित निष्पपक्षता को प्रोत्साहन मिलता है। यह सभी लोगों को अपने बलबूते पर किसी भी निर्णय लेने तथा विचार करने हेतु सामर्थ्य प्रदान करता है।
शिक्षा अगर डिग्रियों तक ही सीमित रहेगी, तो बेरोजगारों की फौज तो बढ़ेगी ही। इसलिए शुरू से ही शिक्षा को ऐसा बनाया जाए कि वह युवाओं को रोज़गार मुहैया करवाए न कि बेरोजगारों की लाइन लगाए . हमारे देश में शिक्षा का विशेष महत्त्व रहा है। हमारी शिक्षा प्रणाली की शुरआत गुरुकुलों से हुई थी जहां श्रेष्ठ ऋषियों-मुनियों के सान्निध्य में रहकर विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे तथा श्रेष्ठ संस्कारों से लैस होकर समाज में आते थे। कितने ही विद्वान, मनीषी इस आर्यवर्त देश में आए, जिन्होंने अपने शास्तोक्त ज्ञान के माध्यम से इस देश को विश्व गुरु के रूप में ख्याति दिलाई। कालांतर भारतीय शिक्षा प्रणाली को मुगलों, राजा महाराजाओं तथा अंग्रेजों की दासता झेलते हुए वर्तमान तक की यात्रा में जिस शिक्षा प्रणाली को हमें झेलना पड़ रहा है, वह मैकॉले की देन है, जिसमें शिक्षण संस्थाओं में घटिया राजनीति शामिल हो गई l
मैकॉले ने लंदन में ब्रिटिश संसद में कहा था कि भारतीयों को कभी भी वापस अपने अतीत में न जाने दिया जाए। अन्यथा इन पर कोई विजय पा ही नहीं सकता और आज यह सत्य सिद्ध हो रहा है कि हमें अपने वेदों, पुराणों, धर्मशास्त्रों में दी गई शिक्षा पर गर्व होना चाहिए था, लेकिन आज हम उस पर शर्म करते हैं।शिक्षा का परिणाम ये होना चाहिए की , शिक्षा की पूर्णता के पश्चात् स्वत जीविका का निर्वाह शुरू हो जाना चाहिए न की बेरोजगारों की भीड़ बढ़ाये l
शिक्षा में कम से कम इतने सुधार की आवश्यकता जरूर है की , शिक्षा की पूर्णता के बाद हमारा युवा , बेरोजगार का तमगा लेकर इधर उधर न भटके हमें बेरोजगार युवाओ की फौज नहीं अपितु हुनर वाले , देश के विकास में भागीदार बनने वाले शिक्षित युवा बनाना चाहिए l और यह एक सुनियोजित शिक्षा नीति से ही संभव है l हमारी शिक्षा उपयोगी, व्यावहारिक, मूल्यपरक एवं बुनियादी अर्थात् रोजगारोन्मुखी हो। शिक्षा पूरी तरह से व्यवसाय क्षेत्र से मुक्त बने, कम से कम दसवीं कक्षा तक निःशुल्क एवं निःस्वार्थ भाव से दी जाने वाली हो।
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