कैसे रोकें शिक्षा का व्यवसायीकरण

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आधुनिक शिक्षा-पद्धति की अपनी अलग ही विशेषता है, पर दुर्भाग्य है कि यह केवल जीवन में आर्थिक निर्भरता प्रदान करने तक ही सिमट कर रह गई है। सामाजिक समृद्धि एवं प्रतिष्ठा का इसमें समावेश तो है पर इसका उपयोग कैसे किया जाये इसकी अनभिज्ञता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में समग्रता का पूर्णतया आभाव है। हम शिक्षा ग्रहण कर समग्र एवं सुदृढ़ सोच का निर्माण करते है जिससे जीवन का समग्र विकास हो पर यह तभी संभव है जब हमें इसकी सही एवं स्पष्ट जानकारी हो। शिक्षा में एक अध्यापक की जिम्मेदारी बहुत ही मायने रखती है, छात्र अपने कर्तव्य के प्रति कितना सजग एवं सतर्क है ताकि उसका समग्र विकास हो सके. आज की शिक्षा एकांगी हो गई है इसका प्रमुख कारण है शिक्षा का व्यवसायीकरण। आज शिक्षा सिर्फ़ एक व्यवसाय का माध्यम बनकर रह गया है। शिक्षा जीवन के सर्वांगींण विकास की व्याख्या करती है। यह विकास की परिभाषा को स्पष्ट करती है, इससे हमें जीवन को बेहतर ढंग से जीने की कला मिलती है। शिक्षा हमारे चहुमुखी विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हमें आंतरिक जगत में चिंतन एवं चरित्र की सही समझ भी शिक्षा के द्वारा ही ज्ञात होती है वही बाहरी जगत में व्यवहारिकता एवं समाज के सामने स्वयं की एक उत्कृष्ट प्रस्तुति का सही ताल-मेल भी शिक्षा के द्वारा ही संभव है।

आज की शिक्षा में इन मूलभूत बातों का कोई महत्त्व नजर नहीं आता। पुराने समय में शिक्षा ज्ञानदान की पुण्य परम्परा थी, जो की आज महज पैसा एकत्र करने की योजना बन कर रह गई है। पहले योग्य आचार्य जो अपने अन्दर ज्ञान की अनंत भंडार संग्रहित किये रहते थे, वे विद्यार्थियों को समुचित शिक्षा प्रदान कर उनका मार्ग आलोकित करते थे। तब शिक्षा निःस्वार्थ सेवा थी जो “सर्वजन हिताय” को दर्शाती थी यही कारण था कि उन दिनों योग्य छात्रों की अधिकता थी या यूँ कहें तो जमावड़ा रहता था। यही विद्यार्थी आने वाले समय में अपने राष्ट्र एवं समाज को अपने मजबूत कंधों का सहारा देते थे। यही था हमारे स्वर्णिम भारत का रहस्य। पहले जहाँ शिक्षा उपहार स्वरुप था आज वहीँ सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यवसाय का स्रोत है। शिक्षा के कर्णधारों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि आज शिक्षा विश्व बाज़ार में इतने बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में परिवर्तित हो जाएगी, सच में यह एक अद्भुत करिश्मा है है। आज शिक्षा व्यवसाय में बेशुमार पैसा है। आज उच्च संस्थानों में पढ़ाने के लिए जितना खर्च आता है उससे तो यही लगता है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार शायद ही इस बारे में सोचे इसका सबसे ज़्यादा असर एक योग्य एवं प्रतिभावान छात्रों पर पड़ता है वह चाहकर भी उन संस्थानों में दाखिले से वंचित रह जाता है और यही आज की शिक्षा पद्धति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम है। आज तो जिधर नजर उठा कर देखेंगे एक से बढ़ कर एक शैक्षणिक प्रतिष्ठान नित जन्म ले रहे हैं जहाँ सिर्फ़ धनाढ्य वर्ग ही शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। वहाँ छात्रों की योग्यता का कोई विशेष मतलब नहीं होता, मतलब तो बस उसकी पारिवारिक संपन्नता से होती है। इन्हीं धन-पशुओं की बदौलत ऐसे संस्थान फल-फूल रहे हैं। संपन्नता एवं व्यावसायिकता की इस अंधी दौड़ में शिक्षा–रूपी व्यवसाय तो ज़रूर फल-फूल रहा है, पर शिक्षा का मूल उद्देश्य ख़त्म हो गया है। आज इन प्रतिष्ठानों में नैतिक मूल्य, चरित्र एवं व्यवहार का कोई मूल्य नहीं रह गया है। यह एक विडंबना ही है कि कल के भविष्य का वर्तमान इस रूप में देखने को मिल रहा है।